राजा हरिश्चंद्र और सत्य की परीक्षा: एक अमर कथा
भारतीय पौराणिक कथाओं में ऐसी अनेक गाथाएँ हैं जो हमें जीवन के उच्चतम मूल्यों की शिक्षा देती हैं। उनमें से एक है राजा हरिश्चंद्र की कथा, जिन्हें सत्य का प्रतीक माना जाता है। यह कथा न केवल ब्रह्म पुराण और मार्कंडेय पुराण में वर्णित है, बल्कि कई भारतीय लोक कथाओं में भी इसे सम्मानपूर्वक सुनाया जाता है।
🔸 राजा हरिश्चंद्र का चरित्र
राजा हरिश्चंद्र अयोध्या के प्रसिद्ध सूर्यवंशी राजा थे। वे अत्यंत धर्मनिष्ठ, दयालु, और सत्य के लिए अपने प्राणों की आहुति देने वाले शासक थे। उनका जीवन इस बात का प्रतीक है कि सत्य के मार्ग पर चलना चाहे जितना कठिन हो, अंततः वह विजय दिलाता है।
🔸 सत्य की परीक्षा की शुरुआत
एक बार महर्षि विश्वामित्र ने राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा की परीक्षा लेने का निश्चय किया। उन्होंने स्वप्न में आकर राजा से कहा कि आपने मुझे दान देने का वचन दिया है, कृपया अब दान दें।
राजा हरिश्चंद्र ने सत्य के अनुसार उसे स्वीकार कर लिया और ऋषि से कहा:
“मैं वचनबद्ध हूँ, आप जो कहेंगे वह दान दूँगा।”

🔸 सब कुछ दान कर दिया
महर्षि विश्वामित्र ने तीनों लोकों के बराबर स्वर्ण माँगा। हरिश्चंद्र ने अपना समस्त राज्य, धन, और वस्त्र भी दान में दे दिए। फिर भी ऋषि असंतुष्ट रहे और शेष दान की पूर्ति के लिए उन्होंने हरिश्चंद्र को काशी जाने को कहा, जहाँ वह स्वयं को और अपने परिवार को बेच सकें।

🔸 दासत्व की दशा
काशी पहुँचकर हरिश्चंद्र ने अपनी पत्नी तारामती और पुत्र रोहिताश्व को एक ब्राह्मण के हाथ बेच दिया और स्वयं श्मशान में एक चंडाल के पास काम करने लगे। उनका कार्य था शवों का अंतिम संस्कार कर शुल्क लेना।
कल्पना कीजिए — एक राजा, जो कभी स्वर्ण सिंहासन पर विराजमान था, अब चिता की राख में लिपटा शवों के बीच खड़ा था। फिर भी, उनके चेहरे पर कोई क्षोभ नहीं था, क्योंकि उन्होंने स्वयं को सत्य के मार्ग पर समर्पित कर दिया था।
🔸 पुत्र का मृत्यु और परीक्षा की पराकाष्ठा
एक दिन तारामती अपने मृत पुत्र रोहिताश्व के शव को लेकर श्मशान पहुँची। हरिश्चंद्र ने नियम के अनुसार शुल्क माँगा। तारामती के पास कुछ नहीं था। उस समय उन्होंने कहा:
“यदि मुझे पहचानते हो, तो अंतिम संस्कार कर दो।”
राजा ने उत्तर दिया:
“मैं अपने धर्म और कर्तव्य से बंधा हूँ, चाहे आप मेरी पत्नी ही क्यों न हों।”
यह सत्य की पराकाष्ठा थी — एक पिता अपने मृत पुत्र के अंतिम संस्कार के लिए भी नियम नहीं तोड़ता।

🔸 ईश्वर की कृपा और सत्य की जीत
इस दारुण दृश्य को देख स्वयं भगवान विष्णु, इंद्र और महर्षि विश्वामित्र प्रकट हुए। उन्होंने राजा हरिश्चंद्र की सत्यनिष्ठा से प्रसन्न होकर उन्हें पुनः जीवन का वैभव प्रदान किया।
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रोहिताश्व को जीवनदान मिला
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हरिश्चंद्र को पुनः राज्य मिला
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और वे स्वर्ग लोक में स्थान प्राप्त कर अमर हो गए
🔸 राजा हरिश्चंद्र से आज की प्रेरणा
राजा हरिश्चंद्र की कथा केवल पुरातन इतिहास नहीं, बल्कि आज भी उतनी ही प्रेरणादायक है जितनी तब थी। सत्य और धर्म के लिए उन्होंने राज्य, परिवार, धन, यहां तक कि आत्मसम्मान भी छोड़ दिया, परंतु अपने वचन से कभी पीछे नहीं हटे।
यदि आज के समाज में भी हर व्यक्ति सत्य और धर्म के मार्ग पर चले, तो एक दिव्य युग की कल्पना की जा सकती है।
🪔 निष्कर्ष
राजा हरिश्चंद्र की कथा हमें यह सिखाती है कि:
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सत्य की राह कठिन जरूर होती है, लेकिन उसका फल अत्यंत मधुर होता है।
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धर्म और कर्तव्य का पालन हर स्थिति में करना चाहिए।
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जीवन की हर कठिनाई के पीछे कोई दिव्य उद्देश्य होता है।